मैं नीर भरी दुख की बदली - महादेवी वर्मा
वेदना और मर्म की कवयित्री महादेवी जी का छायावादी कवियों में प्रमुख
स्थान है। छायावाद चतुष्टयी में प्रसाद, पन्त और निराला के बाद उन्हीं का नाम आता है।
उनके काव्य में उस अज्ञात प्रियतम के लिए तड़प और उससे दूर होने की पीड़ा सर्वत्र
दृष्टिगोचर होती है। यह दर्द, यह पीड़ा कवयित्री के मन में इस तरह रच-बस गई है
कि उसे सम्पूर्ण सृष्टि इसी पीड़ा में ही सिमटी हुई लगती है। वह तड़पकर कह उठती है-
"तुझको पीड़ा में ढूँढा, तुझमें ढूँढूँगी पीड़ा"। अनुभूतियों के इसी
उत्कर्ष ने उन्हें रहस्यवाद की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री बना दिया।
आइए पढ़ते हैं उनकी कविता- मैं नीर भरी दुःख की बदली
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रँग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली!
मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ न मलिन करता आना,
पद चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन हो अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
मैं नीर भरी दुख की बदली !
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
आपके बहुमूल्य सुझाव की प्रतीक्षा में...